शुक्रवार, अक्तूबर 06, 2006

अनछुआ पहलु

समय के अहाते से कई लम्हें गुज़रे। जाते जाते हर लम्हा एक छाप छोड़ गया। कुछ मीठ़ी, गुनगुनी,कभी न भुलने वाली सौगातें बनी तो कुछ कड़वी, सिरहन भरी और न चाहकर भी याद आ जाने वाली चोटें थी। ऐसे ही यादों के झोले से आज एक लम्हा अचानक सामने आया और अपनी गहराइयों मे छिपे राज़ को यूं बयां कर गया जैसे शांत जल प्रवाह मे अचानक कोई भवंर आ गया हो। ज़हन मे कई प्रशनों की बाढ़ आ गई। लगा मानो किसी बढे घोटाले को सुखी॓ बनाने के लिए कई संवाददाओं का जमघट लग गया हो। चारों ओर एक गूँज थी, जो मेरी विकासशील सोच से टकराकर आत्मा को घायल किए जा रही थी। मानस की भूमि पर इस विवाद से घायल आत्मा को किचिंत् पहली बार यह एहसास हुआ कि किसी बढ़े हादसे के बाद क्या क्या प्रभावित होता है। प्रत्यक्ष तो कड़वा होता ही है, परोक्ष भी स्वादहीन ही होता है।

मैं बात कर रही हूँ, १९९३ व २००६ मे हुए मुम्बई बम धमाको की जिसमे कुल ५०० लोगों को अकाल मृत्यु का मुँह देखना पडा। किन्तु मेरे पास वो गिनती उपलब्ध नहीं है जो यह बताती हो कि इस हादसे के बाद ज़िदां लाशें कितनी है, दरबदर घूमते बेसहारा कितने है? बहराल हमारे समाज और देश मे कई जनचेतना के काम किए गए। सरकार ने मुआवज़ा भी उपलब्ध कराया।स्वंय सेवी संस्थाओं ने बेसहाराओं को सहारा दिया।अपराधियों की खोजबीन और सज़ा सुनवाई भी जारी है।

यह सब तो सिक्के के एक पहलु है, जो किसी भी बड़े, भयावह, दिल दहलाने वाले हादसे के दौरान और बाद मे होते हैं। परन्तु क्या हमने सिक्के के दुसरे पहलु को परखा है?क्या हमने यह जानने का प्रयत्न किया है कि इस हादसे के परोक्ष शिकार कौन हैं? उन परोक्ष शिकारों की ज़िंदगियों मे क्या हाहाकार मचा हुआ है? इस हादसे के बाद उनके परिवार के कितने मासूमो को बलि का बकरा बन अपनी ईह लीला भेंट चढ़ानी पडी? मेरे इन प्रशनो ने अगर अभी भी आपके मन मे उन परोक्ष शिकारो का रंग उडा, भयभीत चेहरा उकरा न हो तो आप यह सुनिए जो मैने आज सुबह एन.पी.आर, शिकागो (नेशनल पब्लिक रेडियो, शिकागो) पर सुना," लम्बी दाढ़ी और नमाज़ी टोपी देखकर पुलिस और जनता यही सोचती है कि यह आदमी सिम्मी या किसी न किसी आंतकवादी संगठन का नुमाइन्दा है।" अब तो आप समझ ही गए होगें मेरे मानसपटल पर आज के विवाद का कारण।

इन हादसो ने कुछ लोगों का सब कुछ छीन लिया, परिवार बिखर गए,कई मासूम बाहरों के आने से पहले ही चमन को अलविदा कह गए,कई सपने के तानेबाने को कफ़न बना कर दूनिया से कूच कर गए,कोई बुढ़े माँ-बाप छोड गया,कोई रोते-बिलखते बच्चे,किसी की नव-विवाहिता के हाथ सूने हो गए तो किसी के नवज़ात की किलकारियाँ शान्त हो गई। सभी का बहुत कुछ प्रभावित हुआ है।

इन हादसों की व्यथा और अपनो से बिछुडने की आह की ऐसी धूल उडी की हम सभी की आँखे
धुंधला गई और हमें सब कुछ धुंधला दिखने लगा, हर शख्स की परख हम उसकी सतह से करने लगे। हमारे दिलों-दिमाग ने सोचने-समझने के सभी आयामों को बंद कर दिया। और इस तरह हम छाछ को भी फूँक-फूँक कर पीने लगे। नतीजा, अनगिनत परोक्ष शिकार जो अपनी मासूमीयत के सबूत उस धूल के गुबार मे हमे दिखा न सके या यूँ कहे हम देख न सके।हमने अपनो को हादसे मे खोया था और अपनो को ही हादसो के बाद खो रहे है।इस धूल के गुबार से धुंधलाई आँखो को आज खोलकर हकीकत देखनी होगी वरना अंत मे मासूमो की लाशों के ढ़ेर पर बैठकर फिर से अपनो के मातम के आँसू रोने होगें, शायद तब यह आँसू धोखा दे जाए, क्योंकि यह कम्बख़त भी कितना बहेगें।

तो दोस्तो धूल के गुबार के छटने का इंतज़ार न करो, खुद उठो और अपने दिलो-दिमाग के सोचने समझने के सभी आयाम खोल दो और रोको उस तांडव को जो प्रत्यक्ष शिकारों को मौत की नींद सुला चुका है, अब परोक्षों को भी निगले जा रहा है।

1 टिप्पणी:

हरिराम ने कहा…

क्या अपना विनाश स्वयं करने का अभिशाप मिला है मानव वर्ग को? कृष्ण ने अपने सामने ही अपने समग्र यदुवंश का विनाश क्यों देखा था? गीता में युद्ध करने की, मारने की शिक्षा क्यों दी थी? आत्मा की अमरता संसार की नश्वरता की अनुभूति करा देते हैं ऐसे हादसे।