गुरुवार, मई 10, 2007

बगिया का माली

इधर उधर बेतरतीब तरीके से बढी टहनियों को काट छाँट कर , कभी कभी पतली रस्सियों से बाँध कर भी अक्सर पापा बगीचे में लगे पेड पोधों की देख रेख किया करते थे। उनकी क्यारियों में सूखे-बिखरे पत्तों को समेटते थे। पोधों पर पीली पडी पत्तियों को हटाकर उस पोधे की हरियाली को कायम रखते थे। एक दिन जब मैंने उनसे पूछा की वह यह क्या कर रहे हैं तो उन्होंने कहा यदि वह ऐसा नहीं करेंगे तो यह पोधा बेतरतीब तरीके से बढेगा और दूसरे पोधों के दायरे में इसकी टहनियाँ रुकावट डालेंगी। सुनकर मुझे लगा की होगा कोई बागवानी का तरीका। ज्यादा ना तो कुछ समझ आया ना ही मैंने कोशिश भी की समझाने की। सो बात आयी गयी सी हो गयी।
आज उस बात को १५ साल हो गए हैं, उस वक़्त में बच्ची थी, आज में एक जिम्मेदार विवाहित महिला हूँ। अपने पापा की कही बातों का एहसास १५ सालों बाद हुआ हैं और उसका भावार्थ भी समझ आया हैं।
कितना सच था पापा का वो कहना, मैं भी तो उनके जीवन बगियाँ की पोध थी , मुझे भी तो उन्होंने बिल्कुल उस बगीचे के पोधे की तरह सींचा हैं।समय-समय पर मेरी सोच -समझ की आवश्यकतानुसार काट-छाँट की हैं। कभी-कभी मेरी सोच को बाँधा भी था ताकी वो उन दायरों में प्रवेश ना करे जहाँ जाकर सिर्फ पछताना ही होता हैं।
कभी-कभी अपने अनुभवों की खाद मेरी विकसीत हो रही मासूम सोच पर डालकर उसे फलित भी किया था।
अपने दायरे को, अपने व्यक्तित्व को, मैं आज बहुत प्रभावशाली महसूस करती हूँ ;महसूस करती हूँ उस माली के सतत प्रयासों को जिसके रहते मैं दूसरों के दायरे की इज़्ज़त करती हूँ। कभी जब अपनी हरी-भरी डालियों और अपने सुलाक्षित प्रदर्शन की वाह-वाही ज़माने भर से पाती हूँ तो मुझे उस माली के पेशानी से बहा पसीना याद आता हैं,जिसकी बूंदों की चमक मेरी धमनियों में प्रवाहित हो रही हैं।
आज इतने सालों बाद मुझे उस बगियाँ के माली की कमी महसूस हो रही हैं। सात समुन्दर पार अपने देश से दूर मुझे उस माली की याद आ रही हैं। कभी-कभी इस पोधे की टहनियाँ जिन्दगी की उलझनों में उलझ जाती हैं, कभी समय की दौड़ में इसकी कुछ पत्तियां पीली पड़ जाती हैं।कभी-कभी कर्त्व्यनिर्वहन में यह पोधा झुलस जाता हैं। कभी-कभी जिम्मेदारियों को निभाते समय यह पोधा अनुभव की खाद को तरसता हैं।
आज बस एक बार उस माली के पेशानी से टपकते पसीने के स्पर्श की इस पोधे को चाहा हैं।
उस बगिया के माली और भी पोधें हैं,जिन्हें वें उस मेहनत से सींच रहे हैं। पर अब मैं नकी बगिया की पोध नहीं हूँ, और वोह अब मेरे माली नहीं हैं। पर मैं जानती हूँ की वह माली वहीँ से, केवल अपनी नज़रों से मेरी कभी-कभार झुलसायी पत्तियों को सहला देते हैं,अपनी बातों से उलझी पडी टहनियों को सुलझा देते हैं और अपने आशीर्वाद की खाद देकर एक सफल माली बनने का आशीष देते हैं।


बुधवार, अप्रैल 25, 2007

हमारे घर ना आएगी कभी ख़ुशी उधार की

हर तरफ एक उदासी का आलम था या हर सन्नाटे में एक अजीब सा शोर था जो मन को बेचैन किये जा रहा था। एक कमरे से दुसरे कमरे, दुसरे से तीसरे कमरे में , कभी बालकनी कभी बगीचा सभी जगह जाकर देख लिया हर जगह यह सन्नाटे का शोर पीछा किये आ ही जाता था। इससे भागने की जगह भी ख़त्म हो गयी थी , यूही थक कर बैठी तो सामने लगा आईना हँस दिया। उसकी अट्टहास में वह बात नहीं थी जो मेने तब सुनी थी जब मुझे सोलह्वा साल लगा था , जब सब कुछ नया और जवां लगता था। यह हँसी वैसी भी नहीं थी जो पहली बार जीवनसाथी से मिलने के लिए तैयार होते वक़्त आईने के सामने आ रही थी। यह हँसी वैसी भी नहीं थी जो पहली बार माँ बनने के उत्साह से आईने के सामने आयी थी।
तो फिर यह कैसी हँसी हैं? किसकी हैं? इतनी अनजानी क्यों हैं? ऐसा लग रहा था मानो यह हँसी मेरे सन्नाटे के शोर का मज़ाक बना रही हो,मुझे चिढा रही हो। एक मन हुआ आईना ही तोड़ दूं ,पर फिर भी यह बंद नहीं हुई तो? यही सोचते सोचते आंसू से भरी आंखें जो शायद कई रातों से जाग कर थक गयी थी , यकायक नींद के आगोश में खो गयी। आगोश में अंतर्मन कि चेतना मानो मेरा ही इंतज़ार कर रही थी। उससे रूबरू हो उस अनजानी हसीं का रहस्य खुल गया। मेरा अंतर्मन ही मुझ पर हँस रहा था पर मैं इसे पहचानी क्यों नहीं? अभी मैं कुछ सोच ही रही थी कि अंतर्मन बोला कितना समय हो गया हमें रूबरू हुए , शायद इसीलिये तुम मेरी अट्टहास भी नहीं पहचानी। सच ही तो हैं पिछले कई सालों मैं कितने नए रिश्तों मैं बंध गयी कितने किरदारों में खो गयी , कहॉ फुरसत मिली अंतर्मन से रूबरू होने की। परिवार , समाज, रिश्तेदार इन सबके बीच अंतर्मन को तो बिल्कुल ही भूल गयी थी। कभी फुरसत ही नही मिली या यूं कहूँ की फुरसत निकाली ही नहीं।
पर फिर आज अचानक अपने अंतर्मन कि दस्तक कैसे सुनायी दे गयी मुझे?आज दुःख के इस सागर में जब मैं अकेली डूब रही हूँ तो केवल मुझे अपने अंतर्मन कि आवाज़ ही क्यों सुनायी दे रही हैं?वह सब लोग कहॉ हैं जिन्हें मैं देखना चाहती हूँ?वह सब कहॉ हैं जिन्हें मैने अपना वह समय और दुलार भी दिया जो मेरे अंतर्मन का था?कहॉ है वह खुशियाँ जिन्हें मैं महसूस करना चाहती हूँ? अंतर्मन मेरे इन सवालों पर बस हँसा चला जा रह था? और मैं मूढ़ उन सभी प्रश्नों के उत्तर कि आस मैं इधर उधर बेतहाशा भागी जा रहीं थी की तभी अंतर्मन बोला" वह लोग जिनका तुम्हें इंतज़ार हैं नहीं आएंगें , नहीं देखेंगे तुम्हें मुड़कर, वह सुख के साथी हैं शायद अब तुम्हें पहचाने भी ना। वह खुशियाँ जिनका तुम्हें बेसब्री से इंतज़ार हैं नहीं आएँगी क्योंकी वह खुशिया उधार कि हैं?"और एक अट्टहास के साथ अंतर्मन कहीँ विलीन हो गया। यकायक मेरी भी आंख खुल गयी अचानक अपने आप को काफी हल्का महसूस कर रही थी, अब वह हँसी भी नहीं सुनायी दे रही थी। उठकर आईने के सामने गयी तो गालों पर फैला काजल था,अंतर्मन कि चेतना अभी भी मस्तिष्क मैं हिलोरे ले रही थी। सब कुछ धुला धुला सा लग रहा था जैसे बारीश कि बोछार से धुलने के बाद पेड पोधे लगते हैं।
ठंडे पानी से चहरे को धोया,बाल बनाए, कपडे सुव्यवाथित किये और पास पडे प्लेयर पर मधुर संगीत लगाया। पुनः आईने के सामने जाकर खडी हो गयी, अपने ह्रदय पर हाथ रख कर अपने अंतर्मन से वादा किया "हमारे घर ना आएगी कभी ख़ुशी उधार कि।"