गुरुवार, मई 10, 2007
बुधवार, अप्रैल 25, 2007
हर तरफ एक उदासी का आलम था या हर सन्नाटे में एक अजीब सा शोर था जो मन को बेचैन किये जा रहा था। एक कमरे से दुसरे कमरे, दुसरे से तीसरे कमरे में , कभी बालकनी कभी बगीचा सभी जगह जाकर देख लिया हर जगह यह सन्नाटे का शोर पीछा किये आ ही जाता था। इससे भागने की जगह भी ख़त्म हो गयी थी , यूही थक कर बैठी तो सामने लगा आईना हँस दिया। उसकी अट्टहास में वह बात नहीं थी जो मेने तब सुनी थी जब मुझे सोलह्वा साल लगा था , जब सब कुछ नया और जवां लगता था। यह हँसी वैसी भी नहीं थी जो पहली बार जीवनसाथी से मिलने के लिए तैयार होते वक़्त आईने के सामने आ रही थी। यह हँसी वैसी भी नहीं थी जो पहली बार माँ बनने के उत्साह से आईने के सामने आयी थी।
तो फिर यह कैसी हँसी हैं? किसकी हैं? इतनी अनजानी क्यों हैं? ऐसा लग रहा था मानो यह हँसी मेरे सन्नाटे के शोर का मज़ाक बना रही हो,मुझे चिढा रही हो। एक मन हुआ आईना ही तोड़ दूं ,पर फिर भी यह बंद नहीं हुई तो? यही सोचते सोचते आंसू से भरी आंखें जो शायद कई रातों से जाग कर थक गयी थी , यकायक नींद के आगोश में खो गयी। आगोश में अंतर्मन कि चेतना मानो मेरा ही इंतज़ार कर रही थी। उससे रूबरू हो उस अनजानी हसीं का रहस्य खुल गया। मेरा अंतर्मन ही मुझ पर हँस रहा था पर मैं इसे पहचानी क्यों नहीं? अभी मैं कुछ सोच ही रही थी कि अंतर्मन बोला कितना समय हो गया हमें रूबरू हुए , शायद इसीलिये तुम मेरी अट्टहास भी नहीं पहचानी। सच ही तो हैं पिछले कई सालों मैं कितने नए रिश्तों मैं बंध गयी कितने किरदारों में खो गयी , कहॉ फुरसत मिली अंतर्मन से रूबरू होने की। परिवार , समाज, रिश्तेदार इन सबके बीच अंतर्मन को तो बिल्कुल ही भूल गयी थी। कभी फुरसत ही नही मिली या यूं कहूँ की फुरसत निकाली ही नहीं।
पर फिर आज अचानक अपने अंतर्मन कि दस्तक कैसे सुनायी दे गयी मुझे?आज दुःख के इस सागर में जब मैं अकेली डूब रही हूँ तो केवल मुझे अपने अंतर्मन कि आवाज़ ही क्यों सुनायी दे रही हैं?वह सब लोग कहॉ हैं जिन्हें मैं देखना चाहती हूँ?वह सब कहॉ हैं जिन्हें मैने अपना वह समय और दुलार भी दिया जो मेरे अंतर्मन का था?कहॉ है वह खुशियाँ जिन्हें मैं महसूस करना चाहती हूँ? अंतर्मन मेरे इन सवालों पर बस हँसा चला जा रह था? और मैं मूढ़ उन सभी प्रश्नों के उत्तर कि आस मैं इधर उधर बेतहाशा भागी जा रहीं थी की तभी अंतर्मन बोला" वह लोग जिनका तुम्हें इंतज़ार हैं नहीं आएंगें , नहीं देखेंगे तुम्हें मुड़कर, वह सुख के साथी हैं शायद अब तुम्हें पहचाने भी ना। वह खुशियाँ जिनका तुम्हें बेसब्री से इंतज़ार हैं नहीं आएँगी क्योंकी वह खुशिया उधार कि हैं?"और एक अट्टहास के साथ अंतर्मन कहीँ विलीन हो गया। यकायक मेरी भी आंख खुल गयी अचानक अपने आप को काफी हल्का महसूस कर रही थी, अब वह हँसी भी नहीं सुनायी दे रही थी। उठकर आईने के सामने गयी तो गालों पर फैला काजल था,अंतर्मन कि चेतना अभी भी मस्तिष्क मैं हिलोरे ले रही थी। सब कुछ धुला धुला सा लग रहा था जैसे बारीश कि बोछार से धुलने के बाद पेड पोधे लगते हैं।
ठंडे पानी से चहरे को धोया,बाल बनाए, कपडे सुव्यवाथित किये और पास पडे प्लेयर पर मधुर संगीत लगाया। पुनः आईने के सामने जाकर खडी हो गयी, अपने ह्रदय पर हाथ रख कर अपने अंतर्मन से वादा किया "हमारे घर ना आएगी कभी ख़ुशी उधार कि।"
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शुक्रवार, अक्तूबर 06, 2006
अनछुआ पहलु
मैं बात कर रही हूँ, १९९३ व २००६ मे हुए मुम्बई बम धमाको की जिसमे कुल ५०० लोगों को अकाल मृत्यु का मुँह देखना पडा। किन्तु मेरे पास वो गिनती उपलब्ध नहीं है जो यह बताती हो कि इस हादसे के बाद ज़िदां लाशें कितनी है, दरबदर घूमते बेसहारा कितने है? बहराल हमारे समाज और देश मे कई जनचेतना के काम किए गए। सरकार ने मुआवज़ा भी उपलब्ध कराया।स्वंय सेवी संस्थाओं ने बेसहाराओं को सहारा दिया।अपराधियों की खोजबीन और सज़ा सुनवाई भी जारी है।
यह सब तो सिक्के के एक पहलु है, जो किसी भी बड़े, भयावह, दिल दहलाने वाले हादसे के दौरान और बाद मे होते हैं। परन्तु क्या हमने सिक्के के दुसरे पहलु को परखा है?क्या हमने यह जानने का प्रयत्न किया है कि इस हादसे के परोक्ष शिकार कौन हैं? उन परोक्ष शिकारों की ज़िंदगियों मे क्या हाहाकार मचा हुआ है? इस हादसे के बाद उनके परिवार के कितने मासूमो को बलि का बकरा बन अपनी ईह लीला भेंट चढ़ानी पडी? मेरे इन प्रशनो ने अगर अभी भी आपके मन मे उन परोक्ष शिकारो का रंग उडा, भयभीत चेहरा उकरा न हो तो आप यह सुनिए जो मैने आज सुबह एन.पी.आर, शिकागो (नेशनल पब्लिक रेडियो, शिकागो) पर सुना," लम्बी दाढ़ी और नमाज़ी टोपी देखकर पुलिस और जनता यही सोचती है कि यह आदमी सिम्मी या किसी न किसी आंतकवादी संगठन का नुमाइन्दा है।" अब तो आप समझ ही गए होगें मेरे मानसपटल पर आज के विवाद का कारण।
इन हादसो ने कुछ लोगों का सब कुछ छीन लिया, परिवार बिखर गए,कई मासूम बाहरों के आने से पहले ही चमन को अलविदा कह गए,कई सपने के तानेबाने को कफ़न बना कर दूनिया से कूच कर गए,कोई बुढ़े माँ-बाप छोड गया,कोई रोते-बिलखते बच्चे,किसी की नव-विवाहिता के हाथ सूने हो गए तो किसी के नवज़ात की किलकारियाँ शान्त हो गई। सभी का बहुत कुछ प्रभावित हुआ है।
इन हादसों की व्यथा और अपनो से बिछुडने की आह की ऐसी धूल उडी की हम सभी की आँखे
धुंधला गई और हमें सब कुछ धुंधला दिखने लगा, हर शख्स की परख हम उसकी सतह से करने लगे। हमारे दिलों-दिमाग ने सोचने-समझने के सभी आयामों को बंद कर दिया। और इस तरह हम छाछ को भी फूँक-फूँक कर पीने लगे। नतीजा, अनगिनत परोक्ष शिकार जो अपनी मासूमीयत के सबूत उस धूल के गुबार मे हमे दिखा न सके या यूँ कहे हम देख न सके।हमने अपनो को हादसे मे खोया था और अपनो को ही हादसो के बाद खो रहे है।इस धूल के गुबार से धुंधलाई आँखो को आज खोलकर हकीकत देखनी होगी वरना अंत मे मासूमो की लाशों के ढ़ेर पर बैठकर फिर से अपनो के मातम के आँसू रोने होगें, शायद तब यह आँसू धोखा दे जाए, क्योंकि यह कम्बख़त भी कितना बहेगें।
तो दोस्तो धूल के गुबार के छटने का इंतज़ार न करो, खुद उठो और अपने दिलो-दिमाग के सोचने समझने के सभी आयाम खोल दो और रोको उस तांडव को जो प्रत्यक्ष शिकारों को मौत की नींद सुला चुका है, अब परोक्षों को भी निगले जा रहा है।
Posted by Priya Sudrania at 12:02 pm 1 comments
मंगलवार, अक्तूबर 03, 2006
हंगामा है क्यों बरपा
हंगामा है क्यों बरपा
टी.वी पर एक समीक्षा देखी, "गांधीगीरी का नया फामू॓ला"। गणमान्य समिक्षाविदों का जमावड़ा और बहस का मुद्दा हाल ही मे प्रदशि॓त फिल्म " लगे रहो मुन्ना भाई"। हमने भी देखी थी यह फिल्म,सो स्वतः ही इस बहस से जुड़ जाने का मानस बन गया। वाद-परिवादों के झुरमुट से गणमान्य समिक्षाविदों ने निणॆय निकाला कि,"हालाकिं फिल्म गांधी के विचारों को नए आयाम से नव पीढी़ को परोसने का सराहनीय काम करती है,फिर भी इस फिल्म ने गांधी की विचारधारा को "गांधीगीरी" का नाम देकर मखमल मे टाट का पैबंद लगा दिया है।"
बस इसी " गिरी" के गांधी के नाम से जुड़ जाने से समाज़ के एक तबके मे तो जैसे हंगामा ही बरप गया। भई हम तो कहते है भला हो इस फिल्म का जिसने गांधी की भूली हुई शिक्षा को फिर से याद तो दिला दिया। उन अनमोल मूल्यों को फिर से जी़वित कर दिया,जिसे शायद हमारे समाज़ ने गांधी की देहान्त के साथ ही भावभीनी श्रधांजलि दे दी थी।
आजकल जिस तेज़ गति से बिना पीछे मुड़े हम आगे-आगे,सबसे आगे निकल जाने के लिए भागे जा रहे है,उसमे हमे तो यह फिल्म एक ऐसा हवा का झोंका लगी जो आपने साथ गुज़रे कल के मुल्यों का एहसास लाई हो। ऐसा एहसास जो मन मस्तिष्क को झणझोर देने की झमता रखता हो।
हमारे देश मे मुद्दों का बाज़ार हमेशा उबलता रहता है और ऐसे मे अक्सर साधारण सी, पर पते की बात भी इसी बाज़ार की भेंट चढ़ जाती है। भई जैसा देश वैसा भेस रखने मे हजॆ ही क्या है।आज की युवा पीढ़ी को कोई बात उन्हीं की भाषा मे समझाई जाए तो उसके सफल होने के आसार और बढ़ जाते है। क्या माँ बाप बचपन मे तुतलाते हुए अपने बच्चे को खुद तुतला कर उसे उसी की भाषा मे नहीं समझाते।फिर यह हंगामा क्यों बरपा है यारों।
हाथ कंगन को आरसी क्या,हम आपको एक उदाहरण भी दे देते है। हाल ही मे मुम्बई की एक पाँश काँलोनी के बाशिंदों ने इसी "गांधीगिरी" के सबक के चलते वहाँ चल रहे देह व्यापार और व्यापरियों की वो हालत की इस जन्म मे तो वें इस व्यापार की और देखने से रहे। दरसल कई बार पुलिस मे शिकायत के उपरान्त जब कोई भी कानूनी कायॆवाही होते न देख, मोहल्ले की सभी औरतें, आदमी, बच्चे और बुढ़े मिल कर वहाँ चल रहे सरोज लाँज मे घुस कर एक-एक कमरे की तलाशी लेकर सब जोड़ों को बाहर निकाला तथा उन सभी से सरे आम ऊठक-बैठक लगवाई। साथ मे कसम भी दिलवाई की वें आईन्दा इस काम से तो तौंबा ही करेगें।
अब आप ही फैसला ले की यह काम गांधी की अंहिसा नीती से ही तो हुआ वरना तो बरसों से पुलिस के कानों मे तो ज़ूँ तक नहीं रेंग रही थी।
तो जनाब अगर हंगामा ही बरपाना हे तो आंतकवाद के खिलाफ बरपाओ,अशिक्षा के खिलाफ बरपाओ,शोषण के खिलाफ बरपाओ, असामनता के खिलाफ बरपाओ न की गांधी के साथ जुड़े "गिरी" पर।
Posted by Priya Sudrania at 11:24 pm 2 comments
बुधवार, सितंबर 20, 2006
बज़(buzz)
हाए, ए.एस.एल प्लीज़।{Hi,asl(age,sex,location) please}
कमप्यूटर के पटल पर जैसे ही यह वाक्य अवतरित हुए तो ध्यान यकायक उस ओर खींच गया।
अपनेँ देश से दूर परदेस मे "इंटरनेट" एक वरदान ही तो हैँ ,एक "यूज़र आई.डी." याहू मैसेन्ज़र" पर बनाए और हो जाए अपने दोस्तोँ और रिशतेदारोँ के लिए उपलब्ध। कुछ यही सोचकर मैनेँ भी अपना "आई.डी." बना लिया।
अचानक हुए इस बज़ ने मन को विचलित कर दिया, और न चाहते हुए भी उस और ध्यान देना पड़ा। ज्ञात हुआ कि कोई जानकारोँ मे से नहीँ है,अतः राहत मिली चलो अपने काम को पूरा कर लूगीँ।बस फिर क्या फटा़फट़ लिख डाला"मैँ अनजानोँ से बात नहीँ करती,कृपया माफ करेँ।"
जवा़ब आया" एक समय तो सभी अनजानेँ होते है।"
इस जवा़ब से मेरा काम पर से सारा ध्यान काफुर हो गया।
मैनेँ लिखा"जनाब, मैँ बात करने की इच्छुक नहीँ हुँ, अतः आप समय न खराब करेँ।"
वहाँ से लिखा आया"आप शायद पहले किसी बुरे अनुभव के फलस्वरूप मुझे टाल रहीँ हैँ।"
मानसपटल पर कुछ बुरे अनुभव तेर गए।
कुछ सोच कर लिखा"ठीक हैँ आप के साथ बात करके मैँ अपने आप को एक मौका और देती हुँ।"
इसी तरह अनुनय विनय के बाद हमारी बातचीत आरंभ हुई।
कुछ ओपचारिक बातो के बाद अचानक अनेकानेक विस्मियादी बोधक चिन्होँ सहित लिखा आया,
"आप विवाहित हैँ, आपके बायोडेटा मैँ लिखा हैँ।"
मुस्कुरा कर मैनेँ लिखा,"जी हाँ,कुछ ड़ेढ साल से इस अनुपम सुख का आनंद ले रही हुँ।"
शायद स्वर दुखी ही रहा होगा,लिखा आया"ओह मैनेँ सोचा आप.............खैर जाने देँ।"
यूँ ही सिलसिला बढ़ा तो ज्ञात हुआ जिनसे बात कर रही हुँ दरसल वो एक फौज़ी हैँ।मन मैँ आदर के भाव उमड़ आए और कह ड़ाला"धन्यवाद,आप ही लोगोँ के कारण़ हमारा देश सुरक्षित हैँ।"
सिलसिले को ज़ारी रखते हुए जनाब ने पुछा"आपका "वाईल्डेस्ट थाँट" क्या हैँ?"
मैनेँ कहा "किस परिपेक्ष मे जानना चाहते हैँ?"
तुरंत जवाब आया,"कमाल हैँ ,क्या आप समझी नहीँ।"
मैने कहाँ," जी नहीँ।"
सैनिक साहब फरमाए," जी आप विवाहित हैँ, आप की एक सीमा है तो आपका मन नहीँ किया आज़ाद खुले आकाश मे उड़ने को,बंधन की सीमा के बाहर थोडा टहल आने को।"
अभी भी मैँ उन पंक्तियोँ के मध्य छुपे मतलब को ठीक से समझ नहीँ पाई थी इसलिए पुछ बैठी,"कभी इस ओर ध्यान नहीं गया।"
फौज़ी ने कहा," अभी भी देर नहीं हुई है, मैं और आप केवल शब्दों के माध्यम से इस बंधन की रेखा से बाहर उड़कर देखते हैं।"
हमने भी कह दिया,"अब आप अपना कोई तानाबाना बताए तो हमारी मूढ़ मेधा को कुछ समझ आए।"
सिपहीया जी जो शुरु हुए तो समझ आया " बंधन से बाहर" का आशय, वहीं उन्हें विराम दे कर हमने कहा," मैं समझ गई और मैं इससे सहमत नहीं,कृपया अपना समय नष्ट न करेँ।
कुछ बोखलाए से रहेँ होगेँ तभी तो बोलेँ,"मैँ तो केवल शब्दोँ से खेलने को कह रहा हुँ।"
हमने भी कहा,"मैं शब्दों की महत्वता को जानती हुँ इसीलिए दुरपयोग नहीं कर सकती।"
वहाँ से एक बज़ आया,शायद उन्हें हमारे विचार कुछ खासा पसंद नहीं आए।
खैर हमने कहा,"क्या आप हमारा "वाईल्डेस्ट थाँट" जनना चाहेगें।"
अभी भी किसी चमत्कार की चाह मे वे बोले," जरूर, क्यों नहीं।"
मैनें कहना आरंभ किया,"मेरा "वाईल्डेस्ट थाँट" अपने जीवनसाथी के साथ शांतिमय,प्यार से भरपूर और समपि॓त जीवन जीना हैं, अब वो चाहे सपना हो या "इंटरनेट चेटिंग"।"
महाशय शायद समझ गए होगें की उनका बज़ आज गलत ज़गह पड़ गया हैं।
कुछ समय यूहीं चुप्पी का आलम रहा,जिसे मैने ही एक बज़ से तोड़ा और जवाब का इंतजार किये बिना ही लिखा,"आजकल हर कोइ इस तथाकथित आज़ादी के सपने देखता है। बंधन के बाहार टहल आने की चाह दिन दुनी रात चौगनी गति से बढ़ती ही जा रही है। फिर ऐसे मे शांतिमय,प्यार से भरपूर ,समपि॓त जीवन जीना एक चुनौती बनता जा रहा हैं।"
इतना कुछ कहने पर भी कोई जवाब नहीं आया, तो हमने फिर बज़ किया।
दो चार बज़ के बाद बातचीत समाप्त हो गई। हमने घड़ी सम्हाली तो देखा १२ बजे है।
अपने अधुरे काम को कल पर छोड़कर, हमने चादर सम्हाली। मन मैं ख्याल आया की इस तथाकथित आज़ादी को हवा देने का काम करने वाली फिल्मों और दोपहरी धारावाहिकों की फेरिस्त जितनी लंबी है उससे भी लंबी उसे पसंद करने वालो की है।ऐसे मे मै इस "वाईल्डेस्ट थाँट" को जीना चाहाती हुँ।
यह सोचते सोचते कब आँख लग गई पता ही नहीं चला।
Posted by Priya Sudrania at 2:29 pm 6 comments